शाहजहाॅपुर। 29 जुलाई श्रावण माह के पुनीत अवसर पर आदर्श दिव्यांग कल्याण संस्थान द्वारा आयोजित श्री शिव महापुराण कथा रूद्राभिषेक की ज्ञान गंगा बहाते हुए कथा व्यास प्रशात प्रभू ने भगवान शिव के विवाह की कथा सुनाते हुए बताया कि शिवजी की आज्ञा मानकर भगवान विष्णु सबसे पहले हिमवान के द्वार पर पधारे। देवी माता मैना ने आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियां उत्तम मंगलगीत गाने लगीं। सुंदर हाथों में सोने की थाल शोभित है, इस प्रकार हर्ष के साथ परछन करने चलीं। जब मैना ने विष्णु के अलौकिक रूप को देखा तो प्रसन्न होकर नारद जी से पूछा क्या ये ही मेरी शिवा के शिव हैं
तब नारद जी बोले, ‘‘नहीं, ये तो भगवान श्री हरि हैं। पार्वती के पति तो और भी अलौकिक हैं। उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता।’’इस प्रकार एक-एक देवता आ रहे हैं, देवी मैना उनका परिचय पूछती हैं और नारद जी उनको शिव का सेवक बताते हैं। फिर उसी समय भगवान शिव अपने शिवगणों के साथ पधारे हैं। सभी विचित्र वेश-भूषा धारण किए हुए हैं। कुछ के मुख ही नहीं हैं और कुछ के मुख ही मुख हैं। उनके बीच में भगवान शिव अपने नाग के साथ पधारे हैं। शिवजी से द्वार पर शगुन मांगा गया है। बाबा ने पूछा कि शगुन क्या होता है
किसी ने कहा कि आप अपनी कोई प्रिय वस्तु दान में दीजिए। बाबा ने अपने गले से सर्प उतारा स्त्री के हाथ में रख दिया जो शगुन मांग रही थी। वहीं मूर्छित हो गई। इसके बाद जब महादेवजी को भयानक भेस में देखा तब तो स्त्रियों के मन में भारी भय उत्पन्न हो गया। डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं यह सब देखकर देवी मैना ने कहा बेटी का विवाह शिव से नहीं कर सकती हूं।
देवी मैना पार्वती से कहा मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूंगी, आग में जल जाऊंगी या समुद्र में कूद पड़ूगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इससे तुम्हारा विवाह नहीं करूंगी।
नारद जी को भी बहुत सुनाया। मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि उसने बावले वर के लिए तप किया। सचमुच उनको न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है। यह सब सुनकर पार्वती अपनी मां से बोली- हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुख-सुख लिखा है, उसे मैं जहां जाऊंगी, वहीं पाऊंगी।
तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया और कहा कि हे मैना तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगजननी भवानी है। पहले यह दक्ष के घर जाकर जन्मी थी, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहां भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थी। तब पर्वतराज हिमालय ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी जानकर शिवजी को समर्पण किया। जब महेश्वर ने पार्वती का पाणिग्रहण किया सभी देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी की जय-जयकर करने लगे। कई प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनंद भर गया।